Monday, July 21, 2008

मेरे मन की व्यथा...

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मैंने कई बार लोगो को कहते हुए सुना कि आधुनिकता कि दौड़ मैं इंसान अपने आप को खोता जा रहा है, आज तक मैं इस चीज़ को नज़रअंदाज करता रहा था | आज जब मेरे एक सहकर्मी ने अपनी बेटी के लिए मुझसे हिन्दी विषय में कुछ सहायता करने को कहा, तो सर्वप्रथम तो मुझे अपने आप पर गर्व महसूस हुआ कि मैं अपनी राष्ट्रभाषा को जानता हूँ और मैं किसी की मदद कर सकता हूँ, परंतु इतने दिनों बाद हिन्दी लिखने मैं मुझे बहुत मेहनत करना पड़ी | मुझे शब्द ही याद नहीं रहे थे और मुझे यह काम बहुत ही बड़ा प्रतीत होने लगा |

आज हम लोग अँग्रेज़ी की ओर इतना ज़्यादा झुक गये है कि हम अपनी राष्ट्रभाषा से दूर होते जा रहे है | सिर्फ़ हिन्दी दिवस मना लेने से हमारी ज़िम्मेदारी ख़त्म नहीं हो जाती है, हमें लोगों को जागरूक करना होगा उनके कर्तव्य के प्रति, अपनी राष्ट्रभाषा के उत्थान के प्रति | आज यदि आप किसी युवा से पूछेंगे कि वह किस लेखक के किस उपन्यास को पढ रहा है तो आप किसी भारी भरकम अँग्रेजी उपन्यास और लेखक का नाम सुनने को तैयार रहिए, यही नहीं अगर कोई भारतीय लेखक का भी अँग्रेज़ी उपन्यास हो तो भी उसे उपहास कि दृष्टि से देखा जाता है | क्या यही है हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी और हमारे भारतीय साहित्य का अस्तित्व ? जिस भारतीय साहित्य और भाषा को कई देशों के लोगों ने इतना सम्मान दिया, आज वहीं हमारे देशवासियो के बीच अपनी छवि खोती जा रही है | हालाँकि मैं मानता हूँ की आज हर क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए अँग्रेज़ी एक महत्वपूर्ण साधक हो गया है और मैं भी उन्ही लोगो की श्रेणी मैं सम्मिलित हू परंतु फिर भी ये मन कहीं ना कहीं कचोटता है | आज मन करता है कि मैं भी अपने राष्ट्रभाषा के उत्थान के लिए कुछ करूँ और अपने देश के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी का कुछ अंश निर्वाह कर सकूँ |

साथ ही मैं लगा रहा हूँ वो निबंध जो मैंने कल बहुत ही जद्दोजहद के बाद लिखा है | :)

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