Sunday, October 24, 2010

एक सोच...

"  कई दिन बीत गये पर कोई विचार ना मैं लिख पाया...
कई एहसासो से गुजर गये पर किसी से मैं ना कह पाया...
इस तरह लग रहा अब मन में जैसे..
जीवन की इस दौड़ में सदा खुद को व्यस्त पाया...  "

कहते है की इंसान को सबसे ज़्यादा तकलीफ़ होती हैं अपने आपको किसी चीज़ के लिए सक्षम बनाने के लिए | उससे ज़्यादा तकलीफ़ होती है सक्षम होने के बावजूद बिना किसी रुकावट के अपने पथ पर आगे बढ़ने के लिए, अपने सपनो को पूरा करने के लिए | पिछले कई दिनों में मैने ये महसूस किया है की इंसान अपने सपनो की सीमा को हमेशा आगे बढ़ाता रहता है | और माना जाए तो आज के इस प्रतिस्पर्धा के युग में ऐसा होना भी चाहिए | पर क्या वो इंसान अपने निर्णय सिर्फ़ अपनी योग्यता और अपने आत्म-विश्वास के बल पर ले पाता है? आज की इस गलाकाट प्रतियोगिता में हर इंसान अपने आप को दूसरे से उपर देखना चाहता है | हार-जीत की दौड़ में वो अपनी मानवीयता को खोता जा रहा है और वो स्वार्थी होता जा रहा है | वो हमेशा दूसरो से "उम्मीद" करता रहता है पर क्या वो स्वयं दूसरो की "उम्मीद" पर खरा उतर पाता है ?? अगर ईंसान खुश रहना चाहता है तो उसे अपने शब्दकोष मैं से "उम्मीद" शब्द हटा देना चाहिए | जो उम्मीद नही करता, उसे कोई तकलीफ़ नही होती | उम्मीद करना है तो खुद से करो, खुद अपने आप को दुनिया के सामने इस तरह प्रस्तुत करो की उसे भी तुमसे कोई उम्मीद की शिकायत ना रहे | हमें सीखना चाहिए उस नन्हे से फूल से जो जीवन पर्यंत दूसरो की खुशी के लिए जीवित रहता है और जिसके मुरझाने के बाद इंसान उसे देखता भी नही | फिर भी वो झड़ने के बाद और नये फूलों के जन्म के लिए पराग कण छोड़कर जाता है |  महादेवी वर्मा ने इन पंक्तियो मे पुष्प-जीवन और मानव-जीवन को एकदम सही रूप में वर्णित किया है -

"   कर दिया मधु और सौरभ दान सारा एक दिन...
किंतु रोता कौन है तेरे लिए दानी सुमन...
मत व्यथित हो फूल, सुख किसको दिया संसार ने...
स्वार्थमय सबको बनाया है यहाँ करतार ने...

विश्व मे हे फूल! सबके हृदय तू भाता रहा....
दान कर सर्वस्व फिर भी हाय! हर्षाता रहा...
जब न तेरी ही दशा पर दुख हुआ संसार को...
कौन रोएगा सुमन! हम से मनुज नि: सार को...  "

ये विचार पूर्णत: तात्कालिक है और किसी विशेष बात से संबंधित नहीं हैं |